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योग के प्रकार (Yog ke prakar)

हम जानते हैं की योग आत्मा को परमात्मा से मिलाने का विज्ञानं है| पर क्या आप जानते हैं की योग कई प्रकार का होता है?

असल में भारत में योग विद्या के पारंगत ऋषि-मुनियों ने ये समझ लिया था की, परमात्मा मिलन का एक नहीं, अपितु कई मार्ग हैं| हर इंसान अपने व्यक्तित्व और इच्छानुसार अपना मार्ग चुन सकता है| भारत में आध्यात्मिक आज़ादी है|

अतः कालान्तर में योग को इस विद्या के विशारदों ने अनेक भागों में बाँट दिया है। योग के कई भेद कर दिए गए। कई नामों से योग साधनाएँ की जाने लगीं।

विभिन्न योग शास्त्रों के आधार पर योग के निम्नलिखित भेद हैंः

  • राज योग
  • ज्ञान योग
  • कर्म योग
  • भक्ति योग
  • हठ योग
  • कुण्डलिनी योग
  • नींद योग
  • लय योग
  • प्रेम योग

(इस लेख में हम जानेंगे - Types of Yoga, in Hindi)

Table of Contents
  • राज योग
  • ज्ञान योग
  • कर्म योग
  • भक्ति योग

राज योग

संक्षेप में ‘राजयोग‘ योग की वह विद्या है जिसमें योगी मन को वश में करके प्राणों पर विजय करता हुआ योग सिद्धि को प्राप्त होता है।

‘राजयोग‘ में योग के आठ अंग होते हैं - यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि।

विस्तृत विवेचन करने पर इन आठों को ही सोलह भागों में विभक्त किया जाता है। जैसे धारणा को दो भागों - प्रकृति धारणा और ब्रह्म ध्यान में, समाधि के चार अंग - वितर्कानुगत, विचारानुगत, आनन्दानुगत, और अस्मितानुगत है।

योग के सम्पूर्ण अंगों की साधना में, अन्तिम, ‘समाधि‘ में चित्तवृत्ति एकाकार की स्थिति को प्राप्त होती है। चित्तवृत्ति का निरोध ही योग है। मन ही मनुश्य के लिए बन्धन स्वरूप है। इसे बन्धन से मुक्त कराने में बुद्धि की क्रिया बहुत सहायक होती है। बुद्धि की क्रिया किसी विषय-विशेष पर विचार करना है। विचारों के द्वारा चित्तवृत्ति के निरोध की क्रिया को ही ‘राजयोग‘ कहा जाता है।

ज्ञान योग

ज्ञान ही मनुश्य को योगाभ्यास के योग्य बनाता है। बिना ज्ञान के योग और बिना योग के यथार्थ ज्ञान की प्राप्ति सम्भव नहीं है।

ज्ञान दो प्रकार का है - प्रकार विषय और प्रकार अविषय। जब प्रथम प्रकार का ज्ञान दृढ़ हो जाता है, तब दूसरे प्रकार का ज्ञान उत्पन्न होता है। दूसरे प्रकार का ‘अविषय‘ ज्ञान ईष्वर का ही ज्ञान है।

ज्ञान को ‘सूक्ष्म ज्ञान‘ और ‘स्थूल ज्ञान‘ में भी बाँटते हैं। स्थूल ज्ञान भौतिक ज्ञान है जिसे विज्ञान या साईन्स भी कहते हैं। यह ज्ञान मनुश्य को सांसारिक उलझनों में फंसाये रखता है। सूक्ष्म ज्ञान आध्यात्मिक दृष्टि से आवश्यक और श्रेष्ठ ज्ञान है। आत्म ज्ञान या ईष्वर सम्बन्धी ज्ञान इसी में समाविष्ठ है। यही ज्ञान मनुश्य को उच्च स्थिति में पहुँचा सकता है।

ऐसा साधक ईष्वर से एकत्व कर लेता है, वह ईष्वरीय गुणों से ओत-प्रोत हो जाता है। अपनी आत्मा के साक्षात्कार से ही ईष्वर को जान लेता है। ऐसा साधक अद्धैत की अनुभूति करता है। फिर सभी बन्धन टूट जाते हैं और मोक्ष निश्चित हो जाता है। यही ज्ञान योग है।

कर्म योग

इस संसार में आकर सभी को कार्य करना पड़ता है। बिना कर्म किए कोई रह ही नहीं सकता। अब प्रश्न उठता है कि कैसे कर्म करें और कैसे न करें? सुकर्म क्या है और दुश्कर्म क्या है?

इसका निर्णय शास्त्रों के विधान से करना चाहिए। शास्त्रों के विधानानुसार कर्म करना कर्त्तव्य और सुकर्म है। कर्म कभी भी फल प्राप्ति की आशा लेकर या कामनाबद्ध होकर न किया जाए। निश्काम भाव से, बिना फल में आसक्ति के किया जाए। साधक या कर्म योगी के लिए उचित है कि वह जो कुछ भी कर्म करें, बिना फल की इच्छा किए, पूरे मनोयोग से करे और करके ईश्वर को अर्पण कर दे। उसका फल इच्छा के विरुद्ध भी हो सकता है। तब निराश न हो, प्रतिकूल होने पर चिन्तित न हो। प्रत्येक स्थिति में एक से भाव रहें। मानसिक सन्तुलन सदैव बना रहे। सुख-दुख में एक-सा रहे। यही जीवन साधना और कर्म योग है।

‘कर्मयोग‘ के विषय में हमें ‘गीता‘ और महाभारत पर्याप्त बताते हैं। महाभारत में एक स्थान पर बड़े सहज ढंग से जनक कहते हैं- ‘हम राज्य का संचालन मोह रहित होकर करते हैं। यदि हमारे एक हाथ पर चन्दन लगाया जाए और दूसरे को छील डाला जाए, तब भी हमें सुख-दुख एक-सा प्रतीत होता है। अर्थात वैभव और कठिनाई हमारे लिए एक समान हैं।’

सच्चे कर्म योगी की यही पहचान है। कर्म योग साधना का फल तभी प्राप्त होता है जब इतने उच्च भाव होते हैं। जब साधक ऐसी पराकाष्ठा तक अपने जीवन को पहुँचा देता है। सच्चा कर्म यही है।

भक्ति योग

भक्ति भाव से भक्त जो भी कुछ करता है, वह भगवान को ही समर्पित करता है। भक्त का चित्त सदैव भगवान में रमा रहता है। भक्त किसी अन्य प्रकार के योगी से कम नहीं होता है। भगवान के प्रति प्रेम रखना, उसी को अपना सब अर्पण कर देना भक्ति है।

भक्ति से मोक्ष की प्राप्ति हो सकती है। भक्ति की दृढ़ता भक्त और भगवान में एकत्व कर देती है। यही तो ‘ईष्वर प्रणिधान‘ है।

भक्ति योग का योगी जब अपनी भक्ति को दृढ़ कर लेता है, तब वह अपनी सभी कामनाओं से मुक्त हो जाता है। यहाँ तक कि उसे मोक्ष की भी कामना नहीं रहती। वह केवल भगवान को चाहता है। उन्हीं से एकत्व चाहता है, उन्हीं में मिलना-घुलना चाहता है। भक्ति की पराकाष्ठा द्वारा, अपना अहंकार भूल कर ईष्वर के रंग में रंग जाना, तन्मय हो जाना ही भक्ति योग है।

भक्ति सगुण की या निर्गुण की - किसी भी प्रकार से हो, वह ब्रह्म या ईष्वर से एकाकार होने की भावना का नाम है। जब भक्त इसमें सफलता पा लेता है तो समझो वह भक्ति योगी है।

मीराबाई और सूरदास ऐसे सगुण भक्त थे। रामानुज, माघवाचार्य आदि वैश्णव सन्त भी ऐसे भक्त थे।

उपसंहार

इनके अलावा कई योग और भी हैं, जैसे की हठयोग, कुण्डलिनी योग, नादयोग, लय योग, प्रेम योग इत्यादि| न जाने कितने प्रकार के योग बताये गये हैं।

परन्तु सभी योगों का लक्ष्य एक ही है। सभी का उद्देश्य भी समान है। वह है ईष्वर से एकत्व या जुड़ जाना।

जो साधक सच्चे मन से, पूरी लगन और परिश्रम से किसी भी योग की साधनाएँ करता है, उसे योग में सफलताएँ भी मिलती ही हैं। तरह-तरह की सिद्धियों की प्राप्ति होती है। परन्तु विद्वान योगियों ने सिद्धियों के चक्कर में पड़ने या उन्हीं में उलझकर रह जाने का निषेध किया है। योग का असली उद्देश्य मोक्ष की प्राप्ति, या इससे भी बढ़कर ईश्वर की पहचान करना और उनमें समाहित हो जाना है|

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