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योग क्या है? (yog kya hai?)

Table of Contents
  • योग क्या है?
  • क्या मन को वश में करना आवश्यक है?
  • योग का अंतिम पड़ाव क्या है?
  • क्या हर मनुष्य योग कर सकता है?

योग क्या है?

‘योग’ एक भारतीय दर्षन या शास्त्र है। छः दर्षन यहाँ माने जाते हैं:

  • प्रथम-द्वितीय -‘न्याय-वैशेषिक’
  • तृतीय-चतुर्थ- ‘सांख्य योग’
  • पंचम-शश्ठ - ‘वेदान्त और मीमांसा’

‘योग दर्षन’ पर सबसे प्रमाणित महर्शि पतंजलि द्वारा लिखित सूत्र माने जाते हैं।

पतंजलि योग सूत्र के अनुसार - ‘योगेश्चित्त वृत्तिनिरोधः’

अर्थात् ‘चित्तवृत्तियों को रोकना ही योग है’। चित्त में उठने वाली विचार तरंगों को वृत्ति (भंवर) कहते हैं। इन वृत्तियों को रोकना योग कहलाता है।

वैसे ‘योग’ का शाब्दिक अर्थ है - जोड़। वास्तव में यह योग भी जोड़ना ही है। किसे जोड़ता है? किससे जोड़ना है? यह प्रश्न उठने स्वाभाविक हैं।

योग का परिणाम होता है - ‘आत्मा’ और ‘परमात्मा’ का सम्बन्ध हो जाना। अतः आत्मा का परमात्मा से जुड़ना ही योग कहा जाता है।

‘योग’ चूंकि मेल-मिलाप या ‘जोड़ना’ है, आत्मा-परमात्मा का मिलना है, इसलिए योगी स्वयं को परमात्मा के निकट जान कर सबको उसी परमपिता की सन्तान या अंश मानता है। अतः वह सभी प्राणियों को आत्मवत देखता है। योगी सबसे हिला-मिला रहता है, सबको अपने जैसा ईष्वर पुत्र मानकर, किसी को दुख नहीं देता। सबसे प्रेम करता है। उनके मन से पाप की भावना, दुख, क्रोध, काम, कष्ट सब दूर हो जाते हैं। यही तो ‘योग’ है।

संसार के सारे दुःखों का मूल, सारे झगड़ों का कारण हैं - स्वार्थ, घमंड और लाभादि। योगी इन सबसे दूर होता चला जाता है। क्योंकि वह ईश्वर के निकटतर होता चला जाता है।

‘योगी’ को यह ईश्वर-साक्षात्कार ‘योगाभ्यास’ से, योग साधनाएँ करने से होता है। कैसे करें? यही योग विद्या सिखाती है।

क्या मन को वश में करना आवश्यक है?

यह जो ‘मन’ है यह भी भौतिक शरीर के अन्य यन्त्रों की भांति जड़ है, किन्तु इसके सूक्ष्म होने तथा आत्मा के हाथों का यंत्र होने के कारण यह चेतन-सा लगता है। हमारा यह मन तो एक यंत्र मात्र है। मन में उसी चेतन आत्मा की चेतनता है।

मन के द्वारा आत्मा बाहरी विषयों को ग्रहण करती है। यह जिस इन्द्रिय से संयुक्त होता है उसी के द्वारा बाह्य विषयों का हम ज्ञान करते हैं। यह कभी सभी इन्द्रियों से लगा रहता है तो कभी एक से। कभी किसी से नहीं।

अर्थार्थ मन बड़ा चंचल है। मन परिवर्तनशील है। इधर से उधर दौड़ता रहता है।

परन्तु इसमें अंतरदृष्टि की शक्ति भी है। अर्थार्थ बाहर देखने की बजाय इसका प्रयोग मनुष्य अपने अन्तर के सबसे गहरे प्रदेश तक में नजर डालने के लिए कर सकता है।

इस अंतरदृष्टि का विकास और साधन ही ‘योगी’ का उद्देष्य है। परन्तु मन को वश में किये बिना यह संभव नहीं| ऐसा क्यों है? आईये इसको एक उदहारण का प्रयोग करके समझते हैं|

इसी मन का उपादान स्वरूप है ‘चित्त’। और इस ‘चित्त’ में उठने वाली तरंगे हैं ‘वृत्तियाँ’। अगर हम किसी तालाब पर जायें और उसके तल को देखने का प्रयास करें तो भी तल दिखाई क्यों नहीं देता?

कारण यही है कि जल निर्मल नहीं है और उसमें लहरें भी हैं, अर्थार्थ जल शांत नहीं है।

यदि जल पूर्णरूप से साफ, निर्मल है, उसमें एक भी लहर या तरंग नहीं है, तो यह निश्चित बात है कि हम तालाब के तल को देख पाएंगे।

यह चित्त ही मानो वह तालाब है और हमारा वास्तविक रूप वह तल है। ये वृत्तियाँ ही लहरें हैं। मन का अज्ञान और अप-चरित्रता वह गन्दलापन है। यह सब न रहे तो अपने वास्तविक रूप को देखा जा सकता है। ‘योग’ इन्हीं वृत्तियों या लहरों को वश में करने या रोकने का विज्ञान है।

महर्शि पतंजलि ने कहा है कि योग चित्त की वृत्तियों को रोकना या उनका निरोध करना है। यह चित्त अपनी स्वाभाविक और पवित्र अवस्था को पुनः प्राप्त करने के लिए सतत् प्रयासरत है। किन्तु इन्द्रियाँ उसे बाहर की ओर खींचे रखती हैं। उसका दमन, उसकी बाहर जाने की प्रवृत्ति को रोकना और उसे लौटा कर उस चेतन आत्मा के निकट ले जाने वाले मार्ग पर लाना, यही ‘योग’ का प्रथम सोपान है। यह योग ही है जो ऐसा कार्य कर सकता है। बिना ‘योग’ के यह असम्भव है।

योग का अंतिम पड़ाव क्या है?

‘योग’ के जो अंग हैं- उनमें अन्तिम समाधि है और ‘समाधि’ में हम ईष्वर के निकटतर होते हैं। इस स्थिति को पहुँचने के लिए ‘चित्त’ का एकाग्र होना अत्यन्त आवश्यक है। क्योंकि एकाग्र चित्त ही हमें ‘समाधि’ में ले जा सकता है और एकाग्रता ‘योग’ से ही संभव है।

अतः हम योग की परिभाषा इस प्रकार कर सकते हैं - “आत्मा को ईष्वर से जोड़ने लिए, चित्त की वृत्तियों को रोककर, उस पर नियंत्रण करके, उसे एकाग्र करके समाधि की स्थिति को प्राप्त कर लेना ‘योग’ है।”

क्या हर मनुष्य योग कर सकता है? (kya har koi yog kar sakta hai?)

सभी प्राणियों में मन है, चित्त है। परन्तु सभी प्राणी उसे बुद्धि रूप में परिणत नहीं कर पाते। पशु-पक्षियों का चित्त बुद्धि रूप में विकसित होकर वृत्तियों का निरोध नहीं कर सकता। अतः मनुष्य ही ऐसा प्राणि है, जो चित्त की वृत्तियों को बुद्धि रूप में परिणत कर, मोक्ष की प्राप्ति के लिए योग के सोपानों में से गुजर सकता है।

बहुत से लोग समझते हैं कि योग सबके लिए नहीं है। परन्तु यह एक भूल है।

जो भी ‘मनुष्य’ है, जिसका शरीर मानव का है और ‘योग’ की प्रबल इच्छा रखता है, वही इस शास्त्र के द्वारा, इस दर्शन के प्रयोग करके योग साधना कर सकता है।

योग सार्वभौम है। किसी भी मत, सम्प्रदाय या धर्म से सम्बन्धित, शरीरधारी मानव, योग सीख, समझ और कर सकता है। कोई बन्धन नहीं है।

यह विद्या इतनी जटिल भी नहीं है जितनी लोग समझते हैं। बहुत से लेखकों या योगियों ने इस विद्या को दुरूह बताया। किन्तु ऐसा नहीं है। योग असम्भव नहीं है। इसमें कोई गोपनीय बात नहीं है।

प्रत्येक मनुष्य, जब चाहे तब, सच्चे हृदय से अच्छे गुरु की देख-रेख में ‘योग’ विद्या को सीख सकता है।

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